सभ्यता
गिरते हुए दरख्तों का कहना क्या
मैंने टूटे हुए दिलों को देखा है ,
शाख फिर से महक सकती है
मैंने बिखरते हुए इंसान को देखा है ,
कोयल की कूक पपीहे की पीऊ पीऊ मत सुनाओ
मैंने बच्चो को भूख से रोते हुए देखा है ,
शब्द मानव को बहका सकते हैं
मैंने शब्दों के अर्थों को बदलते हुऐ देखा है ,
रात और दिन दरख्तों के साथ रहती हूँ -
मनुष्य को जंगली होते हुये देखा है
जंगल में रहकर भी सभ्यता महसूस की ,
पर शहरों मैं जंगल राज होते हुए देखा है
2 Comments:
bahut hi sundar bhaw
करुणा जी!
स्पष्ट भावाभिव्यक्ति, प्रांजल भाषा और संक्षिप्तता आपका वैशिष्ट्य है. मुझे लगता है सिर्फ देखना पर्याप्त नहीं, जो सही है उसे सराहना, उसके साथ खड़े होना तथा जो गलत हो उसे नकारना जरूरी है. जो समर्थ हैं वे सिर्फ दर्शक हैं यही त्रासदी है.
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